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FIR क्या है , पढ़ो पुरी जानकारी

"एफ आई आर"
.
किसी (आपराधिक) घटना के संबंध में पुलिस
के पास कार्यवाई के लिए दर्ज की गई
सूचना को प्राथमिकी या प्रथम सूचना
रपट (F I R) कहा जाता है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट या एफआईआर (First
Information Report या FIR) एक लिखित
प्रपत्र (डॉक्युमेन्ट) है जो भारत ,
पाकिस्तान , एवं जापान आदि की पुलिस
द्वारा किसी संज्ञेय अपराध (cognizable
offence) की सूचना प्राप्त होने पर तैयार
किया जाता है। यह सूचना प्रायः अपराध
के शिकार व्यक्ति द्वारा पुलिस के पास
एक शिकायत के रूप में दर्ज की जाती है।
किसी अपराध के बारे में पुलिस को कोई
भी व्यक्ति मौखिक या लिखित रूप में
सूचित कर सकता है। FIR पुलिस द्वारा
तेयार किया हुआ एक दस्तावेज है जिसमे
अपराध की सुचना वर्णित होती है I
सामान्यत: पुलिस द्वारा अपराध संबंधी
अनुसंधान प्रारंभ करने से पूर्व यह पहला कदम
अनिवार्य है I
भारत में किसी भी व्यक्ति द्वारा
शिकायत के रूप में प्राथमिकी दर्ज कराने
का अधिकार है। किंतु कई बार सामान्य
लोगों द्वारा दी गई सूचना को पुलिस
प्राथमिकी के रूप में दर्ज नहीं करती है। ऐसे
में प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए कई
व्यक्तियों को न्यायालय का भी सहारा
लेना पड़ा है।
परिचय
जब किसी अपराध की सूचना पुलिस
अधिकारी को दी जाती है, तो उसे
एफ़आइआर कहते हैं। इसका पूरा रूप है है-
'फ़र्स्ट इनफ़ॉरमेशन रिपोर्ट'। आप पुलिस के
पास किसी भी प्रकार के अपराध के संबंध
में जा सकते हैंI अति-आवश्यक एवं गंभीर
मामलों मैं पुलिस को FIR तुरंत दर्ज कर
अनुसंधान प्रारंभ करना अनिवार्य है
I अपराध की सूचना को लिपिबद्ध करने
का कार्य पुलिस करती है। प्रावधान है कि
टेलिफोन से प्राप्त सूचना को भी
एफ़आइआर की तरह समझा जा सकता है।
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के
धारा 154 के तहत एफ़आइआर की प्रक्रिया
पूरी की जाती है। यह वह महत्वपूर्ण
सूचनात्मक दस्तावेज होता है जिसके
आधार पर पुलिस कानूनी कार्रवाई को
आगे बढ़ाती है।
एफ़आइआर संज्ञेय अपराध होने पर दर्ज की
जा जाती है। संज्ञेय अपराध के बारे में
प्रथम सूचना रिपोर्ट कोई भी व्यक्ति दर्ज
करवा सकता है। इसके तहत पुलिस को
अधिकार होता है कि वह आरोपी व्यक्ति
को गिरफ्तार करे और जांच-पड़ताल करे.
जबकि अपराध संज्ञेय नहीं है, तो बिना
कोर्ट के इजाजत के कार्रवाई संभव नहीं
हो पाती।
हालांकि पुलिस की नजर में दी गयी
जानकारी में अगर जांच-पड़ताल के लिए
पर्याप्त आधार नहीं बनता है, तो वह
कार्रवाई के लिए बाध्य नहीं। इस स्थिति
में उसे कार्रवाई न करने की वजह को लॉग
बुक में दर्ज करना होता है, जिसकी
जानकारी भी सामनेवाले व्यक्ति को
देनी होती है। पुलिस अधिकारी अपनी
तरफ़ से इस रिपोर्ट में कोई टिप्पणी नहीं
जोड़ सकता। शिकायत करनेवाले व्यक्ति
का अधिकार है कि उस रिपोर्ट को उसे पढ़
कर सुनाया जाये और उसकी एक कॉपी उसे
दी जाये। इस पर शिकायतकर्ता का
हस्ताक्षर कराना भी अनिवार्य है। अगर
थानाध्यक्ष सूचना दर्ज करने से इनकार
करता है, तो वरिष्ठ पदाधिकारियों से
मिलकर या डाक द्वारा इसकी सूचना
देनी चाहिए।
क्या होता हैं ZERO
FIR:
अक्सर FIR दर्ज करते वक़्त आगे के कार्यवाही
को सरल बनाने हेतु इस बात का ध्यान रखा
जाता हैं कि घटनास्थल से संलग्न थाने में
ही इसकी शिकायत दर्ज हो परन्तु कई बार
ऐसे मौके आते हैं जब पीड़ित को विपरीत एवं
विषम परिस्थितियों में किसी बाहरी
पुलिस थाने में केस दर्ज करने की जरुरत पड़
जाती हैं. मगर अक्सर ऐसा देखा जाता हैं
कि पुलिस वाले अपने सीमा से बहार हुई
किसी घटना के बारे में उतने गंभीर नहीं
दिखाए देते. ज्ञात हो कि FIR आपका
अधिकार हैं एवं आपके प्रति हो रही
असमानताओ का ब्यौरा भी, अतः
सरकार ने ऐसे विषम परिस्थितियों में भी
आपके अधिकारों को बचाए रखने हेतु ZERO
FIR का प्रावधान बनाया है. इसके तहत
पीड़ित व्यक्ति अपराध के सन्दर्भ में
अविलम्ब कार्यवाही हेतु किसी भी
पुलिस थाने में अपनी शिकायत दर्ज करवा
सकते हैं एवं बाद में केस को उपरोक्त थाने में
ट्रान्सफर भी करवाया जा सकता हैं.
प्रथम सूचना रिपोर्ट के
प्रावधान
अगर संज्ञेय अपराध है तो थानाध्यक्ष
को तुरंत प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करनी
चाहिए। एफआईआर की एक प्रति लेना
शिकायत करने वाले का अधिकार है।
एफआईआर दर्ज करते समय पुलिस
अधिकारी अपनी तरफ से कोई टिप्पणी
नहीं लिख सकता, न ही किसी भाग को
हाईलाइट कर सकता है।
संज्ञेय अपराध की स्थिति में सूचना दर्ज
करने के बाद पुलिस अधिकारी को चाहिए
कि वह संबंधित व्यक्ति को उस सूचना को
पढ़कर सुनाए और लिखित सूचना पर उसके
हस्ताक्षर कराए।
एफआईआर की कॉपी पर पुलिस स्टेशन की
मोहर व पुलिस अधिकारी के हस्ताक्षर
होने चाहिए। इसके साथ ही पुलिस
अधिकारी अपने रजिस्टर में यह भी दर्ज
करेगा कि सूचना की कॉपी आपको दे दी
गई है।
अगर किसी ने संज्ञेय अपराध की सूचना
पुलिस को लिखित रूप से दी है, तो पुलिस
को एफआईआर के साथ उसकी शिकायत की
कॉपी लगाना जरूरी है।
एफआईआर दर्ज कराने के लिए यह जरूरी
नहीं है कि शिकायत करने वाले को अपराध
की व्यक्तिगत जानकारी हो या उसने
अपराध होते हुए देखा हो।
अगर किसी कारण आप घटना की तुरंत
सूचना पुलिस को नहीं दे पाएं, तो घबराएं
नहीं। ऐसी स्थिति में आपको सिर्फ देरी
का कारण बताना होगा।
कई बार पुलिस एफआईआर दर्ज करने से पहले
ही मामले की जांच-पड़ताल शुरू कर देती है ,
जबकि होना यह चाहिए कि पहले
एफआईआर दर्ज हो और फिर जांच-पड़ताल।
घटना स्थल पर एफआईआर दर्ज कराने की
स्थिति में अगर आप एफआईआर की कॉपी
नहीं ले पाते हैं, तो पुलिस आपको एफआईआर
की कॉपी डाक से भेजेगी।
आपकी एफआईआर पर क्या कार्रवाई हुई,
इस बारे में संबंधित पुलिस आपको डाक से
सूचित करेगी।
अगर थानाध्यक्ष सूचना दर्ज करने से मना
करता है , तो सूचना देने वाला व्यक्ति उस
सूचना को रजिस्टर्ड डाक द्वारा या
मिलकर क्षेत्रीय पुलिस उपायुक्त को दे
सकता है , जिस पर उपायुक्त उचित
कार्रवाई कर सकता है।
एएफआईआर न लिखे जाने की हालत में आप
अपने एरिया मैजिस्ट्रेट के पास पुलिस को
दिशा-निर्देश देने के लिए कंप्लेंट पिटिशन
दायर कर सकते हैं कि 24 घंटे के अंदर केस दर्ज
कर एफआईआर की कॉपी उपलब्ध कराई
जाए।
अगर अदालत द्वारा दिए गए समय में
पुलिस अधिकारी शिकायत दर्ज नहीं
करता या इसकी प्रति आपको उपलब्ध नहीं
कराता या अदालत के दूसरे आदेशों का
पालन नहीं करता, तो उस अधिकारी के
खिलाफ कार्रवाई के साथ उसे जेल भी हो
सकती है।
अगर सूचना देने वाला व्यक्ति पक्के तौर
पर यह नहीं बता सकता कि अपराध किस
जगह हुआ तो पुलिस अधिकारी इस
जानकारी के लिए प्रशन पूछ सकता है और
फिर निर्णय पर पहुंच सकता है। इसके बाद
तुरंत एफआईआर दर्ज कर वह उसे संबंधित थाने
को भेज देगा। इसकी सूचना उस व्यक्ति को
देने के साथ-साथ रोजनामचे में भी दर्ज की
जाएगी।
अगर शिकायत करने वाले को घटना की
जगह नहीं पता है और पूछताछ के बावजूद
भी पुलिस उस जगह को तय नहीं कर पाती
है तो भी वह तुरंत एफआईआर दर्ज कर जांच-
पड़ताल शुरू कर देगा। अगर जांच के दौरान
यह तय हो जाता है कि घटना किस थाना
क्षेत्र में घटी, तो केस उस थाने को
स्थानान्तरित (ट्रान्सफर) हो जाएगा।
अगर एफआईआर कराने वाले व्यक्ति की
मामले की जांच-पड़ताल के दौरान मौत
हो जाती है , तो इस एफआईआर को
मृत्युकालिक कथन (Dying Declaration) की
तरह न्यायालय में पेश किया जा सकता है।
अगर शिकायत में किसी असंज्ञेय अपराध
का पता चलता है तो उसे रोजनामचे में दर्ज
करना जरूरी है। इसकी भी कॉपी
शिकायतकर्ता को जरूर लेनी चाहिए।
इसके बाद मैजिस्ट्रेट से सीआरपीसी की
धारा 155 के तहत उचित आदेश के लिए संपर्क
किया जा सकता है।

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