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जय जीण भवानी माँ की कहानी

|| जय जीण भवानी माँ की कहानी ||

!! कथा !!
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अति रमणीय मारवाड़ क्षेत्र में घाँघूराव  नामक एक महाबली वीर हुआ। उसने अपने नाम से घाँघूराज्य स्थापित किया तथा घाँघूपुरी नामक नगरी बसाई।

महान बुद्धिमान और योद्धा घाँघूराव की राजधानी घाँघूपुरी अत्यंत सुरम्य और मनोहर थी। वह मारवाड़ में विख्यात हो गई।

घाँघूराव के हर्ष नामक एक पुत्र तथा जीवणकुँवरी नामक दिव्य शोभा से सुशोभित पुत्री थी। दोनों भाई-बहन में परस्पर महान प्रेम था। 
जीवण सुन्दर स्वरूप तथा श्रेष्ठ स्वभाव वाली कन्या थी। उसके ह्रदय में भगवती जगदम्बा की पराभक्ति विद्यमान थी।
हे माँ ! तुम्हीं जयन्ती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा विभिन्न नामों से विख्यात हो।  तुम्हें नमस्कार है।
इस मंत्र के जप में सदा मनोयोग से लगी रहती थी। वह मंत्र के भाव में ही डूबी रहती थी। परम अनुराग से परिपूर्ण ह्रदय से वह सदैव माँ को भजती रहती।
माता-पिता और प्रिय भाई हर्ष उसे लाड़-प्यार से जीण कह कर ही बुलाते थे। वह जीण नाम से ही विख्यात हो गई।
आभलदे नामक एक कुलीन कन्या थी, जिसे अपने सुन्दर रूप का बहुत गर्व था। उसके साथ राजकुमार हर्ष का विवाह सम्पन्न हुआ।
दुर्भाग्यवश घाँघूराव हर्ष के विवाह के समय ही बीमार पड़ गये। मृत्यु के समय वे भावविह्वल होकर पुत्र हर्ष से कहने लगे –
हे पुत्र ! मैं  शरीर त्याग रहा हूँ।  काल महान बलवान है। किन्तु बेटी जीण को देखकर चित्त में बहुत दुःख हो रहा है।
तुम्हारी बहन जीण चिड़िया के समान सरल और भोली है। वह भगवती की भक्ति में ही लगी रहती है। उसे भक्ति में ही आनन्द आता है। दुनियादारी का ज्ञान उसे बिल्कुल नही है।
हे बुद्धिमान पुत्र ! यदि जीण के स्वभाव से अनजान तुम्हारी पत्नी उस पर नाराज हो, तो तुम जीण का बचाव करना।
अहो ! वह मेरे साथ ही खेलती है। मेरे बिना खाना भी नहीं खाती। मैं उसे छोटी उम्र में ही त्यागकर परलोक जा रहा हूँ।
हर्ष ने कहा – हे पिताजी ! आप खिन्न न हों। मैं आपकी शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं अपनी प्रिय छोटी बहन जीण को आपका अभाव महसूस नहीं होने दूँगा।
तब हर्ष के वचन से संतुष्ट होकर नरश्रेष्ठ घाँघूराव स्वर्ग में चला गया। उसकी पत्नी उसके विरह में विलाप करती -करती क्षय रोग से ग्रस्त हो गई।
प्राण त्यागती हुई वह पुत्र हर्ष से करुण वचन कहने लगी – हे पुत्र ! मैं प्रिय पुत्री जीण को कुँवारी ही छोड़ कर जा रही हूँ। (इसका विवाह न कर सकी )
मेरे बिना वह खिन्न न रहे। तुम्हें इसके लिए सदा यत्न करना होगा। कुल में अब तुम्हीं तो उसके एकमात्र आश्रय हो। तुम उसे ऐसा प्यार देना कि वह मुझे याद ही न करे।
हर्ष ने कहा – माँ ! तुम चिन्ता मत करो। बहन जीण मेरे लिए पुत्री की तरह ही है। अब मैं ही उसके लिए माता, पिता और भाई के रूप में रहूँगा।
यह बात सुनकर माता भी संतुष्ट होकर स्वर्ग चली गई। हर्ष जीण के विवाह के लिए श्रेष्ठ वर की खोज में लग गया।
उसके बाद जीण के श्रेष्ठ स्वभाव और सुन्दर रूप को देखकर उससे द्वेष करने वाली भाभी नित्य अपने वचनों और व्यवहार से जीण को पीड़ित करने लगी।
किन्तु जीणकुँवरी स्वभाव से सहनशील थी। इसलिए उसने अपना दुःख न तो भाभी के सामने और न भाई हर्ष के सामने प्रकट किया।
एक दिन हर्ष राज्यकार्य में व्यस्त थे। महल के पहरेदार सैनिक ने कहा – हे स्वामी ! जीण घर छोड़कर चली गई है।
यह बात सुनते ही हर्ष अत्यन्त उद्विग्न हो गया। वह शीघ्रता से उठकर उसी दिशा में चल पड़ा, जिधर उसकी बहन जीण गई थी।
हर्ष को शीघ्र ही जाती हुई जीण दिखाई पड़ी। जीण ओले गिरने से पीड़ित हुई। कमलिनी के समान तथा डरी हुई हरिणी के समान अत्यन्त व्याकुल थी।
हर्ष बोला – हे बहन जीण ! तुम घर को तथा मुझ भाई हर्ष को छोड़कर कहाँ जा रही हो। घर पर चलो। वहाँ मैं तुम्हारी सारी व्यथा सुनूँगा।
यह भोजन का समय है। तुम बिना भोजन किये हुए आई हो। पहले मधुर भोजन करेंगे। उसके बाद वार्तालाप करेंगे।
जीण बोली – भैया ! जहाँ आत्मीयता न हो, वहाँ क्या तो भोजन किया जावे और क्या वार्तालाप किया जावे। संबंधों की जड़ प्रेम ही है।
आज मेरे न माता है और न पिता। भाई को भी भाभी ने छीन लिया। मेरा तो आपके द्वारा प्रेमपूर्वक दी हुई वस्तु पर ही अधिकार है, आपके राज्याधिकार में बँटवारे का हक नहीं है।
किन्तु फिर भी भाभी के द्वारा मुझे दुर्व्यवहार से पीड़ित किया गया। मेरे द्वारा आपको कभी मन की व्यथा नहीं कही गई।
हर्ष बोला – यदि तुम्हारी भाभी के चित्त में तुम्हारे प्रति प्रेम नहीं है, तो तुम्हारे लिए अलग भवन बना दूँगा। तुम्हारे लिए सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण लाऊँगा।
जीण ने कहा – भैया ! न तो मैं पृथक भवन चाहती हूँ और न वस्त्र और आभूषण। ये सब भाभी को दीजिये। वही इन सबकी अधिकारिणी है।
हर्ष बोला – हे बहन जीण ! मेरी बात सुनो। तुमने पहले कभी अपनी भाभी के दुर्व्यवहार के बारे में कुछ नहीं बताया। आज घर को ही त्याग दिया। ऐसा क्यों किया ? मैं सारी बात सुनना चाहता हूँ।
जीण ने कहा – भैया ! आज भाभी के द्वारा सखियोंके सामने मुझ पर लाञ्छन लगाया गया है। मेरे चरित्र पर मिथ्या दोषारोपण किया गया है। इस बात से मैं पीड़ित हूँ।
इसके बाद मेरे द्वारा भगवान सूर्य को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा की गई कि इस घर को छोड़ जगदम्बा के मन्दिर में जाकर रहूँगी।
वह मङ्गलमयी जयन्ती माता ही मेरी आश्रयदायिनी है। हे भैया ! मैं बेसहारा नहीं हूँ। उसी माता की शरण में जा रही हूँ।
भले ही प्रकृति में उलट-फेर हो जाय। चाहे असम्भव सम्भव हो जाय। लेकिन मैं प्रतिज्ञा कर लेने के बाद अब घर नहीं लौटूंगी।
जो कुछ खाद्य पदार्थ मिलेगा, उसे ही खाकर मैं सदा तप करती रहूँगी। माता का ध्यान लगाकर जप करती हुई सदा माता के चरणकमलों के आश्रय में रहूंगी।
जीण का यह वचन सुनकर हर्ष अत्यन्त व्यथित हो गया। वह सोचने लगा कि आज मेरी बहन मिथ्या लाञ्छित होकर दुःख से घर त्याग रही है।
मुझे तो धिक्कार है। मेरे द्वारा पहले माता-पिता को जो वचन दिया गया था, उसका पालन नहीं किया गया। मैं मिथ्याभाषी और पत्नी के दोष से निन्दित हो गया।
हर्ष को पुराना सम्पूर्ण घटनाक्रम याद आ गया। उसे माँ-बाप के वे वचन भी याद आ गए जो उन्होंने मरते समय कहे थे। जीण की सार-सँभाल का अपना संकल्प मिथ्या हुआ जानकर उसे सांसारिक जीवन से वैराग्य हो गया।
उसने बहन जीण से कहा कि अब मैं तुम्हारे साथ जाने की शपथ लेता हूँ। अब मेरा राज्य परिवार आदि कुछ नहीं है। मैं तप करने तुम्हारे साथ वन में जा रहा हूँ।
जीण बोली – नहीं भैया ! ऐसा मत करो। सुनो, यह कार्य उचित नहीं है। भाभी तुम्हारे बिना बेसहारा हो जाएगी। बिना सहारे के वह जीने  में समर्थ नहीं है।
राजा के बिना आरक्षित प्रजा नष्ट हो जाती है। तुम्हें भाभी और प्रजा का संरक्षण करना चाहिए। पति और राजा के धर्म का पालन करना चाहिए।
हर्ष बोला – जीण ! तुम्हारी भाभी तो अपने पिता के घर चली जाएगी। सेनापति मेरी प्रजा की रक्षा करने में समर्थ है।
ऐसा कहकर हर्ष बहन के मना करने पर भी राज्य त्यागकर, उसके साथ ओरण में स्थित जयन्तीमाता के मन्दिर में चला गया।
तत्पश्चात् आँसुओं से भरे नेत्रों वाला वह महामति हर्ष जयन्तीमाता को प्रणाम करके प्रार्थना करने लगा।
हे माता ! इस लोक में सब अभीष्ट फलों को देने वाली तुम्हीं हो। तुम विपत्तिसागर में पड़े व्यक्तियों को स्नेह से हाथ का सहारा देकर बचा लेती हो।
हे माता ! जो सदा तुम्हारा भजन ध्यान और जप करते हैं, वे इस लोक और परलोक में परमानन्द प्राप्त करते हैं।
हे जगदम्बे ! तुम मेरी बहन को उसका इच्छित फल प्रदान करो। मेरी और कोई कामना नहीं है। तथा न कोई अभीष्ट फल है।
तत्पश्चात् भाई-बहन दोनों महान तप करने लगे। जीण तो माताजी के ओरण में तप करती तथा हर्ष भैरवमन्दिर में।
उसके बाद क्रमशः दिन, महीने और वर्ष बीतते चले गये। एक दिन अकस्मात् मूर्ति के स्थान पर जयन्तीमाता प्रकट हो गई।
प्रसन्न और कृतज्ञ कन्या जीण ने श्रद्धा से देवी जयन्ती को प्रणाम किया। इसके बाद वह भक्तिपूर्ण चित्त से देवी की स्तुति करने लगी –
हे पापविनाशिनी जयन्ती माँ ! तुम्हें नमस्कार है। माता ! आप ही मङ्गला हो। आप मङ्गला को नमस्कार है।
हे कालीरूपिणी माँ ! आपको नमस्कार है। भद्रकाली, कपालिनी और दुर्गा रूप वाली माता ! आपको नमस्कार है।
हे माता ! आप ही क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा रूपधारिणी हो। आपको बार-बार नमस्कार है।
प्रसन्नता से परिपूर्ण ह्रदय वाली जीण को भक्ति से सन्तुष्ट देवी ने कहा – हे पुत्री ! तुम क्या वरदान चाहती हो। तब जीण कहने लगी –
हे माता ! जैसे समुद्र में गिरा हुआ नमक उसी के रूप में विलीन हो जाता है, वैसे ही मैं आपके स्वरूप में विलीन हो जाना चाहती हूँ।
प्रसन्न होकर माता ने कहा – तुम जैसा चाहती हो, वैसा ही हो। हर्ष भैरव के स्वरूप में समाकर लोक का कल्याण करता रहे।
मेरे में लीन होकर मेरे रूप वाली तुम लोक पर कृपा करती हो। तुम दोनों भाई-बहनों का यह प्रेमभाव भूतल पर आदर्श है।
जीण जयन्तीमाता के रूप में विलीन हो गई। हर्ष भी भैरव के स्वरूप में समा गया। तब से वहाँ विराजमान जगदम्बा को जीणमाता कहा जाता है।
जीणमाता भक्तों को अभीष्ट फल देने वाली हैं। भक्तों के द्वारा लोक में उनका नित्य पूजन, वन्दन और कीर्तन किया जाता है।
प्राचीनकाल में मेवाड़ के आघाटपुर  आघाटपुर राज्य में हरीशचंद्र नामक प्रजापालक वीर राजा था।
दुर्भाग्यवश वह राजा कुष्ठरोग से ग्रसित हो गया। वह रोगमुक्त होने के लिए पृथ्वी के विभिन्न भागों में स्थित तीर्थों में विचरण करने लगा।
उसका आत्मीय पुरोहित मालाजी नामक पण्डित पूजा कराने के लिए उसके साथ तीर्थों में जाया करता था।
एक बार भाग्य की प्रेरणा से वह राजा जीणमाता के मन्दिर में गया, जो सब अभीष्ट फलों को देने वाला, अभयदायक और रमणीय था।
राजा ने वहाँ विश्राम करके और झरने में निर्मल जल में स्नान करके भक्तिपूर्ण चित्त से माता का पूजन किया।
वह जगदम्बा की कृपा से कष्टमुक्त हो गया। तब वह राजा उस छोटे से मन्दिर का विस्तार कराकर ही अपने राज्य को गया।
राजा ने अपने प्रिय पुरोहित मालाजी को जीणमाता के मन्दिर में पूजा के लिए नियुक्त कर दिया। पुरोहित वहीँ रहकर आनन्द से भक्तिपूर्वक पूजन करने लगा।
साम्भर नरेश पृथ्वीराज के शासनकाल में उसके धर्माध्यक्ष हठड़ नामक भक्त ने जीणमाता की कृपा से अभीष्ट फल पाया।
उसने मन्दिर का जीर्णोद्धार कराकर भव्य पूजन किया। समय-समय पर अन्य व्यक्ति भी जीणमाता की कृपा से अभीष्ट फल पाकर आनन्दित हुए।
उनमें पहले अल्हण उसके बाद बीच्छा और उसके बाद जेल्हण नामक श्रद्धालुजनों ने जीणमाता की कृपा प्राप्त की। उन्होंने जीर्णोद्धार व निर्माण कार्य करा-करा कर माता की पूजा की।
सुल्तान औरंगजेब ने मन्दिर के वैभव के बारे में सुनकर उसे खण्डित करने का निश्चय किया, किन्तु वह अपने प्रयास में विफल रहा।
परमकृपा करने वाली जीणमाता का स्मरण पूजन और ध्यान करने पर वह सब कामनाओं को पूरा करती है तथा बड़े से बड़े भय से रक्षा करती है।
कथा समाप्त
॥ जय माता दी !!
!! जय माता दी !!

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